बा-नूर
मैं रवि "घायल" इक रमता जोगी
जिसका ना कोइ अता-ना-पता
ना ठौर-ना ठिकाना
यह दुनिया है जिसके लिए
इक मुसाफिरखाना
जो दिखता है कोशिश करता हूँ
जमाने से बांटने की
जो समझ आता है
कह देता हूँ
नंगे शब्दों में
किसी से वैर नहीं सभी अपने हैं
जो अभी नहीं मिले वो सपने हैं
काफ़ी गुजर गयी ना
जाने कितनी बाकी है
जिस दिन इस देह में आया था
तभी से मरना शुरू कर दिया था
रोज़.....हर-पल......तिल-तिल...कर
मर रहा हूँ
या यूं कह लो.......
जीवन से
मृत्यु का
सफर तय कर रहा हूँ
मगर मायूस नहीं
ना-उम्मीद नहीं .....
जिस राह पर सदियों से
सभी चलते आये हैं
उस पर चलने में कैसी मायूसी
.
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ख़ुशी-ख़ुशी सफर तय हो जाए
मंजिल तक पहुँच जाऊं
यही कामना है
यह सभी को समझ आ जाये
तो मरघट वीराना और
बस्ती सराय ना कहलाये
किसी राहगीर ने
किसी फकीर से पूछा था
बस्ती की ओर जाने का रास्ता
फकीर ने बार-बार पूछा
क्या वास्तव में
बस्ती की ओर जाना चाहते हो
तो पथिक के यकीन दिलाने पर
फकीर ने जो रास्ता बताया
उस रास्ते ने पथिक को शमशान पहुंचाया
पथिक बौखलाया
और वापिस आ कर उसने
फकीर को
बहुत भला-बुरा सुनाया
भला इस-में फकीर ने क्या गलत किया
जो शमशान में जा बस जाता है
वो फिर कभी नहीं उजड़ता
तो वास्तव मैं बस्ती तो वही हुई ना........
जिसे हम बस्ती (दुनिया) कहते हैं
क्या आज तक वहां कोइ भी सदा के लिए बस पाया है
यदि नहीं तो फिर वो बस्ती कहलाने के लायक कैसे हुई
एक बार दो दोस्त कब्रिस्तान के पास से गुजर रहे थे
बातें करते करते एक ने ईर्ष्या वश एक कब्र की तरफ इशारा करते
हुए कहा
देखो कितने चैन से सो रहा है कब्र में सोने वाला
तभी कब्र में से आवाज़ आयी
जान दे के यह जगह मिली है
इतनी महंगी जगह में अगर मैं आराम से सो रहा हूँ
तब तो तुम ईर्ष्या ना करो .
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तो तुम ही बताओ
ख़ुशी-ख़ुशी सफर
गर खत्म हो जाए तो
रोना किस बात का
.
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पर हाँ असमय जाना
सफर बीच में छोड़ जाना
दुःख और क्षोभ के कारण हो सकते हैं
इसी बात का तो दुःख है
की मेरा बेटा
मेरा भाई
मेरा मित्र
आज
सफर को
अधूरा छोड़ कर ही
चल दिया
.
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शायद वो हम से ज्यादा समझदार था
उसने इस सत्य को बहुत जल्दी जान लिया की
असली बस्ती तो शमशान ही है
यह दुनिया तो बस सराए है
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