Monday, November 19, 2012



ऊपर वाले को भी हमारी कमी खलने लगी है 
देखो-देखो मेरी उम्र ढलने लगी है 

एक साल और हो गया कम 
इस जहां की बस्ती अब उजड़ने लगी है 

उलटी गिनती हो चुकी है शुरू
50.51..52...53.....54....55.......56.........
और लो .......... 57   
भी हुए पूरे 

आज न जाने क्यूं 
ये वस्त्र  मैले व् पुराने लगने लगे हैं 

बस अब नये वस्त्र आने वाले हैं 
हम अब यहाँ से जाने वाले हैं 

जो पल बाकी हैं उन्हें हंसते-खेलते गुजारना होगा 
अपनी सब काबलियतों  को निखारना होगा 

आखिर अपने घर वापिस जाना है
उस भेजने वाले को भी तो मुंह दिखाना है 

जल्दी जल्दी  सब समेट लूं 
अपनी आभा को कुछ और निखार लूं

बस इतना समय दे देना मालिक 
अपनी .....
न-न तेरी बिछाई बिसात 
को खुशी खुशी खेल सकूं 

फिर जब चाहे आवाज़ दे लेना
मैं दौड़ा  चला आऊँगा 
तेरे आगोश में सो जाऊंगा 



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